Wednesday, June 23, 2010

मैंने देखा है सब कुछ ( पुनः सम्पादित ) .....>>> संजय कुमार

मैंने देखा है सब कुछ
मैंने देखा है, खिलखिलाता बचपन
डगमगाता यौवन, और कांपता बुढ़ापा
मैंने देखा है सब कुछ

मैंने देखे बनते इतिहास और बिगड़ता भविष्य
टूटतीं उम्मीदें और संवरता वर्तमान
मैंने देखा है सब कुछ


मैंने देखी है बहती नदियाँ ,और ऊंचे पहाड़
मैंने देखी है जमीं और आसमान
बारिस की बूँदें और तपता गगन
मैंने देखीं हैं खिलती कलियाँ और खिलते सुमन
मैंने देखा है सब कुछ


मैंने देखी है दिवाली , और होली के रंग
मैंने देखी है ईद , और भाईचारे का रंग
मैंने देखे मुस्कुराते चेहरे और उदासीन मन
मैंने देखा है सब कुछ


मैंने देखा लोगों का बहशीपन और कायरता
मैंने देखा है साहश और देखी है वीरता
मैंने देखा इन्सान को इन्सान से लड़ते हुए
भाई का खून बहते हुए , और बहनों का दामन फटते हुए
मैंने देखा है माँ का अपमान, और पिता का तिरस्कार
मैंने देखा प्रेमिका का रूठना , और प्रेमी का मनाना
मैंने देखा है सब कुछ


मैं कभी हुआ शर्म से गीला, तो कभी फक्र से
कभी जीवन की खुशियों से, तो कभी दुखों से
मैंने देखा लोगों द्वारा फैलाया जातिवाद और आतंकवाद
मैंने देखी इमानदारी और, चारों और फैला भ्रष्टाचार
मैंने देखा झूंठ और सच्चाई
इंसानों के बीच बढती हुई नफरत की खाई
मैंने देखा है सब कुछ

मैंने देखा है सब कुछ अपनी इन आँखों से
ये आँखें नहीं सच का आईना हैं और आईना कभी झूंठ नहीं बोलता
हाँ मैंने देखा है ये सब कुछ .............................

धन्यवाद

3 comments:

  1. ये कविता फिर से पढ़कर अच्छा लगा..

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  2. मैने भी देखा है बहुत कुछ...................

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